‘आनन्द’ तू पिता की शक्ल में खुदा सा लगता है
दूर कहीं, किसी शाख पर, एक घरोंदा सा लगता है
पेड़ कड़ी धुप में जल रहा, पर उसके नीचे छाया सा लगता है
भूखा है खुद पर मुझे देख उसका पेट भरा सा लगता है
रातें जाएगी सी हैं उसकी पर मेरा हर एक ख़्वाब पूरा सा लगता है
तमाम आँधियों को अपने भीतर समेटे, शीतल सा दीखता वो शक़्स पूछता है मुझसे
मैं तुम्हारा हूँ ‘सूरज ‘, तुम्हें कैसा लगता है?
मैंने कहा –
कभी ज़मीं तो कभी आसमाँ सा लगता है
‘आनन्द’ तू पिता की शक्ल में खुदा सा लगता है